Sunday, November 6, 2011

तुम जानना चाहती थी न ! कि-मेरी क्या हो तुम?


तुम जानना चाहती थी !
कि-मेरी क्या हो तुम?
तो सुनो-
मुझमे समाहित प्रेम का,कोमल एहसास हो तुम.
मेरी प्रेरणा,मेरा विश्वास,मेरा आधार हो तुम.
मेरी प्राण,मेरी आत्मा,मेरा दिलो-दिमाग हो तुम.
मेरे वक्तित्व का प्रारूप,मेरी पहचान हो तुम.
मेरी नस-नस मेरी रग-रग कि जान हो तुम.
तुम क्या नही हो,
ये मै बता नहीं सकती?
रिश्तों के उपमान ,
तुम पर लगा नही सकती,
क्योंकि आज हर रिश्ते पर ,
कोई कोई दाग लग चूका है,
संबंधो कि सीमाओं पर वासनामय आग लग चूका है.
सारे जज्बात झुलस रहे है,
अल्फाज बिखर रहे है.
सभी जलते हुए हृदय से ,
एक-दुसरे के अन्दर के सैलाब निरख रहे है.
कुछ तो स्वाहा होकर,रख में तब्दील हो चुके है.
कुछ जो बच गये है ,वे
प्लास्टिक सर्जरी कि तरह,
ख़ुशी कि चादर लपेट,
अपने हृद के घावों को छुपा,
अन्य लिपटे लिबास वालो को,
खुश करने कि कोशिश में लगे है.
सभी एक-दुसरे को खुश रखने के लिए खुश है,
पर मै जानती हु कि-अंदर से वे कितने दुखी है.
क्या ऐसा करने से वे एक-दुसरे को खुश रख पाएंगे...?
शायद नहीं??????
क्योंकि वे शहद की एक ऐसी खाली शीशी की तरह है
जो बाहर से पूरी भरी दिखाई पडती है ,
पर अंदर से रिक्त हो चुकी है.- Nandini g[2/12/98]